एक औरत जिसके बिना शायद घर का काम अधूरा ही लगता है। जी हाँ काम वाली बाई। एक दिन भी काम वाली न आये तो बर्तन धोने झाडू पोछा करना मुश्किल हो जाता है। आदत नही होती ये सब करने कि या अचानक करना पड़े तो कुछ महिलाओ को नानी याद आ जाती है। मैं ऐसी कई महिलाओ को जानती हूँ जिन्हें काम वाली बाई का एक दिन भी नागा करना स्वीकार नही। बाई के आने के टाइम से थोडा ऊपर हुआ नही कि दरवाजे से झांक कर रह देखना शुरू हो जाता है । अगर अगल बगल कोई दिखाई पड जाये तो फौरन पूछने से चूकती नही " सुनिए बहन जी आज काम वाली बाई नही आई, पता नही कहाँ रह गयी मेरे तो सारे बर्तन जूठे पड़े है। इनका कोई ठिकाना नही, कोई टाइम नही" अगर बगल वाली ने यह कह दिया कि हां आयी है तब खुश होकर अन्दर चली जाएँगी । अगर कह दिया कि नही आयी है तब पैर पटकते, बुदबुदाते हुए घर के अंदर जाती है । अब साहब जब दूसरे दिन काम वाली बाई जैसे ही घर मे घुसी और इससे पहले कि वो कुछ बोलती उसके ऊपर प्रश्नों कि बौछार शुरू हो जाती है। " ये क्या तरीका है ? कल क्यों नही आई ? नही आना था तो खबर तो कर देती। ऐसे नही चलेगा। गुस्से मे अगर बाई कह दे कि ठीक है कोई दूसरी बाई देख लो तो उनका सारा गुस्सा काफूर हो जाता है। शायद ये स्थिति भारत मे आम है। काम वाली बाई के बिना महिलाओ का घर संभाल पाना नामुमकिन सा लगता है। पर कहते है महिला ही महिला कि दुश्मन होती है । उसे दूसरे का दर्द या तकलीफ नही दिखाई देती । क्या काम वाली बाई इंसान नही होती। क्या उसे किसी काम से कही जान नही होता? क्या उसे बिमारी नही आती? या उसके घर मे कोई बीमार नही होता? निम्न वर्ग कि गरीब महिलाओ कि इस दर्द को कोई जल्दी नही समझ पाता। वो हमारे घर मे आती है काम करती है और चुप चाप चली जाती है । उनके होने का एहसास हमे तब होता है जब वो काम पर नही आती है।
काश हम महिलाए भी काम वाली बाई को एक महिला और इंसान कि नज़र से देख पाते । अगर हम महिलाए भी उनके जीवन मे झांके तो वो भी बिल्कुल हम महिलाओ कि तरह ही होती है। उनका भी परिवार होता है, बच्चे होते है, उन्हें भी सबकी तरह अपने घर कि देखभाल और जिम्मेदारी होती है। उनको भी बिमारी आ सकती है । शायद उनको सम्मान और इज्ज़त देकर हम उनके होठों पर मुस्कराहट ला सकते है।